Tuesday 28 August 2012

रूहानियत

रूहानियत की दुनिया में सरहदें नहीं होतीं
रवायतें भी नहीं
यकीन का इक पाकीज़ा सिलसिला भर है ये ,

सांस दर सांस गहराता जाता है
फलक पे ठहरे आफताब की तरह ,

सदियों का फासला भी यहाँ दूरियां पैदा नहीं करता
बस कुछ अहसास बेहद खास हो जाते हैं
धडकनों की मौजूदगी का आइना बनकर ,

हवाओं में अक्स भी जिन्दा नज़र आते हैं
लफ़्ज़ों में जो  उम्र भर की दुआयें बन जाते हैं
बिना किसी कायदे और बिना किसी दायरे के ,

यहाँ इश्क भी बस इश्क होता है
अपनी पूरी शाइस्तगी
अपने पूरे ज़ज्बात के साथ  !!



          अर्चना राज 

Monday 27 August 2012

प्रेम

एक पूरी उम्र के बूढ़े प्रश्नचिन्ह सी
खड़ी  हूँ मै तुम्हारे सामने
बेहद ख़ामोशी से ,

तुम्हारी नसों  में मेरा मौन
दर्द की लकीरों सा बिखर रहा है ,

कोई सवाल ..कोई शिकायत अब नहीं
मौजूद है एक गहरी अंतर्वेदना की चुप
हमारे दरमियान ,

पर प्रेम वस्तुतः अब भी है
शाश्वत ..अनंत ...अविरल !!!




      अर्चना राज 

प्रेम कहानियां

अनगिनत रंग-बिरंगे दुपट्टों में
पढ़ सकते हैं हम
लहराती हुई न जाने कितनी ही प्रेम कहानियां
तीखी - मीठी, चहकती, उबलती
शर्माती, खिलखिलाती ,दुपट्टे के कोरों पर उंगलियाँ मरोड़ती
कसमसाती प्रेम कहानियां ,

यौवन का बेशुमार होना ,उम्मीदों का आफताब होना
किसी से आँखें चार होना ,देखना,मुस्कुराना और प्यार होना
हर अंगुल भर दूरी पर खुशबू से लबरेज़ हैं
ढेरों जन्म लेती प्रेम कहानियां ,

सांस दर सांस, स्पर्श दर स्पर्श
महसूसते , गुनगुनाते ,न जाने कितनी धडकनों को
तरंगित /  आवेशित करती ये प्रेम कहानियां

आँखों की शरारत ,उँगलियों का स्पर्श ,अनजानी सी खुशबू
इनके ही इर्द - गिर्द घूमती हैं अक्सर प्रेम कहानियां 
पर आँखों में अश्क ,सीने में दर्द और धडकनों में तल्खी भी
होती हैं प्रेम कहानियाँ ,

तमाम प्रेम कहानियों को पढो ,महसूसो और किताब बंद कर दो
आमतौर पर जिन्दगी में दर्द और सूनेपन का
आसमान होती हैं ये प्रेम कहानियां
उम्र के ठहरे हुए पलों का सामान होती हैं ये प्रेम कहानियां !!


            अर्चना राज 

Wednesday 22 August 2012

इंतज़ार

तुम्हारी बेजारी ने मेरे दर्द को
अब और भी सख्त कर दिया है
शून्य सी हो गयी हूँ मै
तुम्हारे निरंतर अस्वीकार के आघात से ,

मै सहम जाती हूँ तन्हाई के उस अंदेशे भर से ही
जहां  तुम्हारी यादें मुझे मेरी कांपती  हसरतों से रूबरू कराती हैं
आंसुओं की अनगिनत सूखी लकीरें भी सुलगती मोमबत्तियों सी महसूस होती हैं
जो अंततः थक कर मुझमे ही बेतरतीब दरिया सी पसर जाती हैं ,

धूप  का स्वाद भी अब पहले सा गुनगुना नहीं रहा
और न ही हवाओं में तुम्हारी बेताबियों की आहट बाकी  है
बेचैन रात  भी अब मुझमे तुम्हारी उमंगें  नहीं जगा पाती
क्योंकि शायद ढलती शाम ने अब तक भी तुमसे मिलाने का वादा पूरा नहीं किया है ,

कहीं कुछ बदल सा गया है
या संभव है तुम्हारी चाहतों ने ही शक्ल बदल ली है
पर मै अब भी वहीँ हूँ ठहरी हुई तुम्हारे इन्जार में
उसी परकोटे में 
जहां तब थी जब तुम थे  !!


               अर्चना राज 

Thursday 16 August 2012

आह्वान

बहुतेरे सपने यूँ ही राख  हो जाते हैं कोई आकार लेने से पहले 
क्योंकि सुलगती भूख हमें सपने देखने की इजाज़त नहीं देती
और अक्सर उम्मीदें भी  उलझनों में जकड़ी हुई नज़र आती हैं 
कि जिसे सुलझाने का कोई सिरा कभी दिखाई नहीं देता ,

हमारा इंसान होने का गर्व
पहले ही कदम पर बिखरकर  रेत हो जाता है
और यही स्वतः स्वीकार्य जीवन परम्परागत चुप्पी बनकर 
हमें हर रोज सहते रहने को विवश करता रहा है ,

सदियों की सुप्त मानसिकता कछुओं की शक्ल में होती है
और इस मजबूरी और घुटन में
कई पीढियां खुद ही दम तोड़ती आई  हैं
बेहद स्वाभाविकता से... बिना कोई  आवाज़ उठाये ,

पर अब वक्त आ गया है
कि  हमें जगना होगा .. हमें लड़ना होगा
अपने सपनो , अपनी उम्मीदों
और उन अनगिनत रातों के लिए भी
जिसे हमने भूख से जूझते हुए काटी हैं
और उस खोये हुए सम्मान के लिए भी
जो एक इंसान होने पर स्वतः ही मिल जाया करता है
पर जिसे एक इंसान होते हुए भी हमने यूँ ही गँवा दिया है !!



           अर्चना राज
























Tuesday 7 August 2012

अब तक

हसरतों की शाम का वो एक ख़ास लम्हा
आज भी मौजूद है वैसे ही तुम्हारे कमरे में
जब तुम्हारा स्पर्श कुछ कदम चलकर ठिठक सा गया था हवा में
और मेरा इंतज़ार भी वैसे ही जस का तस है
तुम्हारे कमरे की दीवार से सटकर ठहरा हुआ सा ,

नदी की वो रवानी भी मौजूद है हममे अब तक अपनी पूरी सिहरन के साथ
जब तुमने एक पत्ते पर हमारा नाम साथ- साथ लिखकर
बहा दिया था मेरी तरफ बड़ी शिद्दत से
जिसे छूते ही मै दरिया सी हो गयी
और मुझे देखकर तुम रेत से होने लगे थे ,

चांदनी रात की तमाम बेचैनियाँ भी मौजूद हैं हममे
जब वो धरती के हर इक गोशे को रौशन कर देता है आहिस्ता से चूमकर
और तब सारी कायनात रूमानियत से लबरेज़ हो जाती है
और बेहद अनियंत्रित भी सिवाय मेरे और तुम्हारे ,

पर हमारी ख़ामोशी भी अब तक वैसे ही है
जैसे किसी सरहद की रवायत हो या मजबूरी भी
कि  जिसका टूटना लाजिमी तो है
पर होना उससे भी ज्यादा जरूरी !!




                अर्चना राज