Wednesday 3 February 2016

kavitayen

देर तक सूरज पका आज फिर
शक की देगी में
अंगीठी उम्र जितनी लम्बी थी
आंच सांस जैसी घुटन लिए कसी हुयी,
टुकड़ा-टुकड़ा चांदनी बदलती रही
कोयले में
सितारे भी चिंगारी होते रहे
पर मौसम बारिशों का था
सो धूएँ की ढेरों गंध सीली ही रही ,
सूरज बेशक खूब पका हो देर तक
पर स्याह नहीं हुआ
न ही फीका
कि इस बार उसकी मुस्कान पारिजात सी थी
खिली-खिली और बेतरह बिखरी,
इस बार शक ने उसे सुगन्धित कर दिया था
आश्वस्त भी प्रेम के प्रति
जैसे तुम्हें
मेरे हमनफ़ज !!



चुप्पियों के दौरान
कशमकश की रस्सी थामे
कोई उस पार उतर गया,
कोई रह गया वहीँ पर 
बनने को राह का पत्थर
या फिर शिलालेख सा ही कुछ,
अब ये वक्त को तय करने दो
उसकी नियमावली के अनुसार।।


कभी ठहरकर कभी बरसकर
वो लिख रहा है
बस चंद लम्हे मोहब्बतों के,
हर एक लम्हा उदास है कुछ जरा सा टूटा 
मगर खनकता,
उन्हें समेटूं उतार लूँ खुद में
जैसे कोई नदी उतरती समंदरों में
विलीन होने हदों से आगे,
फिर कोई बादल है आज भी
देखो इतना तनहा
था जैसे ठिठका वो बरसों पहले
उसी सङक के उसी मोङ पर
कि जैसे तुम हो।।



पारे से इतर भी एक पैमाना है
ताप जांचने का
निर्धारित करने का उसकी तीव्रता बिना अंकों के,
कमाल तो ये कि वो जांच के साथ ही इलाज़ भी है
कि वो तकलीफ के साथ सुकून भी है
सरगश्तगी की तमाम उलझनों के बाद भी ,
पर्याप्त होता है एक स्पर्श भर ही मौजूदगी का किसी के
कि जिससे घुल जाती है घुटन की ठंडी सफेदी
कि जिससे धुल जाते हैं आँखों के ढेरों जाले
कि जिससे पिघल जाते हैं दर्द के दावानल कई,
ताप कच्चे मोम सा हो जाता है फिर
जिससे रच लेते हैं हम ढेरों राहत से भरे भाव -अक्स
कल्पनाओं के क्षितिज पर मुस्कुराते ठहराव- अक्स
और कुछ थोड़े से रगों में सरगोशी के लिए बेचैन -अक्स ,
समाधान अक्सर आविष्कारों में नहीं प्राकृतिक सहजताओं में छुपे होते हैं !!












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