Wednesday 3 February 2016

कवितायेँ

कई दफे उदासी बड़ी सूखी सी महसूस होती है
खुरदरी और दरकी हुयी भी ,
हर दफे तोड़कर रख लेती हूँ खुद में हर टुकड़ा उसका
साल बीतने तक भर जाता है हर एक गोशा 
पूरे गले तक ....पूरे नशे तक ,
इंतज़ार रहता है बस सावन का कि जो बरसे
तो भिगो दूं भर दूं हर दुकड़ा हर दरार
कि डूब जाए हर उदास लम्हा फिर रूमानियत में
उम्र भर के लिए
भिगोती हूँ भरती भी हूँ हर बार
न जाने कैसे पर रह जाता है फिर भी अछूता
एक कोना मन का ,
कि उसके लिए बारिश शायद बेवजूद है बेमायने है
कि उसके लिए राहत नहीं बूँद भर भी
इस उम्र में या अनेक उम्रों तक
कौन जाने !!



कल बेहद उदास थी रात
सागौन से टिकी पडी रही खामोश
उधेड़ती रही खुद को सितारों के क्रोशिये से
तब तक जब तक कि ज़ख्म जलने नहीं लगे
तब तक भी कि जब तक उनमे कुछ सोंधापन नहीं जागा ,
लिपटी रही तमाम मीठे लम्हाती सिक्कों के साथ
बीच-बीच में टूटी भी फिर खुद ही खुद को जोड़ा खुद से
खुद ही खुद का स्पर्श किया और उनींदी हो चली
भोर की राहतें सूरज की मुस्कुराहट में तब्दील हो उतर रही थीं
अलविदा कहने हौले से ,
रात ओस में बदल गयी और छुप गयी
नुकीली घास के नीचे
कि मिटटी बांह खोले थी उसे खुद में संजोने को ,
रात के दर्द भर हिस्सा जल उठा मिटटी का
पर वो हंस पड़ी माँ के से सुकून से और थामे रखा उसे दिन भर
देती रही थपकियाँ ... सहलाती रही दुलराती रही
फिर कर दिया विदा शाम ढलने पर ,
कि आज फिर बेहद उदास है रात
कि आज फिर टिकी पडी रहेगी सागौन से
चुपचाप ...... खामोश !!

एक दफे हथेली पर एक ज़ख्म उभरा
हलकी लालिमा लिए पर सब्ज़
हलकी हलकी टीस देता
कभी मीठी तो कभी नुकीली सी
कुछ दिनों बाद उनमे एक बिंदु नज़र आया 
जैसे आँख हो किसी की
या फिर कोई बहुत छोटा सा कैमरा हो
जो हर पल कैद कर रहा हो मुझे
कि मेरे हर लम्हे पर जिसकी नज़र हो ,

एक रोज़ अचानक ही भूरा हो गया
फिर स्याह और स्याह फिर धीरे-धीरे सूख गया
रह गया उस जगह ज़ख्म की याद दिलाता
बस एक कौला मांसल गोल घेरा
और रह गयी कुछ बेहद टीसती यादें ,
तुम्हारा जाना इस कदर तो जरूरी नहीं था न
हमनफ़ज मेरे !!

No comments:

Post a Comment