Tuesday, 17 January 2012

सुर्ख दरख़्त


पहाड़ों के उस पार
लहराते विशाल समंदर की तलहटी में
सिमटे हुए तमाम विकल अहसास
धड़का करते हैं मेरे अन्दर भी
उन लहरों की लय पर
जो हवाएं लाती हैंमुझ तक,

वहां की नमी भी
अपनी सी लगा करती थी;
धूप के कुछ कतरे भी
नर्म तपिश सा जगाते थे;
और जहाँ पत्तों की सरसराहट में भी
सुनाई पड़ती थी किसी के आने की
जानी -पहचानी सी आहट
पर जो कभी नहीं आया ,

नाउम्मीदी की उत्कंठा से त्रस्त
मैंने वहीँ एक गड्ढा खोद कर
दफ़न कर दिया था
कुछ सीपियों , जंगली फूलों
और एक वर्षों पुराने गुलाबी ख़त को
साथ ही अपनी तमाम उम्मीदों
खुशियों और सपनो को भी ,

और चली आई थी
दिलकश पहाड़ों को छोड़कर
समन्दर के इस पार
न जाने किस अनजान कश्ती पर
किन अजनबी हवाओं के संग,

पर क्या सचमुच आ पाई थी
क्यों हर पल
इक मौन रुदन सा घुटता रहा
साँसों के संग- संग ,

समन्दर पार से आने वाली मेरी हमजोली ने
रोज की तमाम बातों संग
बताया इक रोज यूँ ही
कि न जाने कैसा इक दरख़्त
उग आया है
समंदर किनारे से सटे जंगल में;
वक्त-बेवक्त जिसकी कागज़ कि पत्तियों पर ठहरी
अब्र सी बूँदें बिजली सी झिलमिलाया करती हैं;
उसके छोटे-छोटे अनगिनत फल
सीपियों की शक्ल में
पर बेहद सख्त और नमकीन से हैं;
पर सबसे अजीब तो ये है कि
वो दरख्त बेहद सुर्ख है
और जिससे इक मीठी सी खुशबू भी आती है
मानो  किसी के अरमानो का पौधा
उसके दर्द कि ज़मीन पर उग आया हो ,

वो अपने प्रश्नों से उलझी नज़रें
मुझ पर टिका देती है
और हैरानी से दोहराती है;
न जाने कैसा अजीब सा दरख़्त है ......?

मेरी आँखों में अब्र का सैलाब
अब कुछ सख्त सा हो जाता है;
और अनजाने ही मेरे कदम बढ़ने लगते हैं
समंदर कि तरफ ;
उनकी बेचैन लहरों में मेरे दर्द को
शायद इक सरमाया सा नज़र आता है ;
तभी आहिस्ता-आहिस्ता मेरे आस-पास
एक मीठी सी खुशबू बिखरने लगती है
और अनायास ही मै तब्दील होने लगती हूँ
एक विशाल सुर्ख दरख़्त की कठोर शक्ल में
मेरे हम्न्फ्ज़ !!!


          अर्चना राज !!!

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