Friday, 6 January 2012

prem banaam astitv


prem banaam astitv


लहरों ने एक दिन पूछा  किनारे से
की तुम कैसे रह पाते हो
इतना स्थिर ; इतने शांत
बिना किसी हल;चल ;किसी गति के ,

किनारा हौले से मुस्कुराया
उसकी आँखों में अहिस्ता से उतर आई नमी
अचानक खुश्क हो गयी ,

कहा उसने की यही तो मेरी नियति है
ख्वाहिश नहीं मेरी मजबूरी है ..सदियों से
बस एक जगह स्थिर रहना;
मै टकटकी लगाकर
मात्र देख सकता हूँ .. महसूस कर सकता हूँ
पर कुछ भी क्रियात्मक नहीं कर सकता ,

सूरज जब अपनी सारी तीखी तपिश के साथ
मुझ पर छा जाता है
और मै अग्नि सा जलने लगता हूँ
तो बेतरह चीखता-चिल्लाता हूँ ..पर बेआवाज़
जिसे कोई नहीं सुन पाटा सिवाय तुम्हारे ;
तुम ही हो जो दौड़ी चली आती हो
अपनी ढेर सी नमी और ठंडक लेकर ;
और मुझमे ऐसे ज़ज्ब हो जाती हो
की मै फिर से स्वाभाविकता से जी पाता हूँ ,

जब भी हवाएं उग्र होती हैं
तो उड़ा ले जाती हैं मुझे ..यहाँ से वहां ;
जब मै बिखरने लगता हूँ ..बुरी तरह ..विवशता से;
तब भी बस तुम्ही हो
जो संभाल लेती हो मुझे अन्दर ही अन्दर ;
मुझे सांत्वना देती हो और अनजाने ही
जोड़ देती हो मेरे रक्त कड़ों को वापस मुझमे ,

और ये बारिश भी
जब होती है अपने पूरे यौवन पर ;
तब अपने जिंदादिल रफ़्तार से
मुझे यहाँ से वहां बहा देतीहै ;
मै भी जार- जार रोता हूँ
उसकी निरंतर गिरती बूंदों के संग ;
पर बादलों की गर्जना
और बिजली की कड़कडाहट में
कोई भी मेरी चीत्कार नहीं सुन पाता
सिवाय तुम्हारे ;
मेरे ढेरों अंग - प्रत्यंग न जाने कहाँ खो जाते हैं ;
तब भी ऐ लहरों ..तुम ही हो
जो न जाने कहाँ -कहाँ से उन्हें
ढूंढकर लाती हो और जोड़ देती हो मुस्कुराते हुए
बेहद खूबसूरती से ..बिना कोई निशाँ छोड़े ,

क्यों करती हो तुम ऐसा ..कहो तो
क्या है मेरा और तुम्हारा
ये अनकहा और बेनाम रिश्ता ,

पल भर के लिए लहरें थम गयी ख़ामोशी से
पर जब बोलीं तो उनकी आवाज़
आंतरिक रुदन के चरमोत्कर्ष से फट पड़ी ,

कौन हूँ मै तुम्हारी और क्यों करती हूँ ये सब
मै नहीं जानती
पर तुम्हारे बगैर जीना भी तो नहीं जानती ;
मेरे अस्तित्व की पहचान भी तुम्ही से है
वर्ना इस विशाल सृष्टि के महासागर में
मै भी न जाने कहाँ खो जाती ,

तुमसे दूर ..बेहद विकल और अधूरी सी होती हूँ ;
एक विचलित अहसास मुझमे
हलचल पैदा करता रहता है निरंतर ;
जिससे घबराकर मै बार-बार.. लगातार
तुम्हारे पास दौड़ी चली आती हूँ ;
तुम्हारे पास आकर ही मेरी बेचैनी को
कुछ ठहराव मिलता है;
तुम्हारे आगोश में कुछ पल के लिए ही सही
पर पूर्ण होने का अहसास  होता है,

पर न तो तुम्हारी सामर्थ्य इतनी है की
तुम मुझे रोक सको
और न ही मेरी की मै रुक सकूं ;
तुम्हारी प्रकृति है --बेहद स्थिर
और मेरी -- निरंतर गतिमान;
हम दोनों ही बिलकुल विपरीत हैं
पर एक दुसरे के बिना अपूर्ण भी ;
इसीलिए मै बार -बार तुम तक आती रहूंगी
अपनी परिपूर्णता के लिए
और तुम बार-बार नम होते रहोगे
अपने अस्तित्व के लिए ;
और यही हम दोनों के लिए
निर्धारित सुख भी है और श्राप भी;
अनंतकाल से न जाने कब तक..बस यूँ ही !!


                                अर्चना राज!!

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