मै नहीं जानती
कि बसंत क्यों लौट आता है
हर बार मेरी चौखट पर
भावनाओं कि चुनौती लेकर ,
मैंने तो बरसों पहले ही
विदा कर दिया था उसे
तमाम उम्र के लिए
पूरी संजीदगी से ;
पर हर साल उसकी थपथपाहट
सुनाई पड़ती है धडकनों में
और मेरे अहसास भी कमबख्त
कुछ-कुछ जाग उठते हैं ,
दिखाई पड़ने लगता है हर तरफ
पीली सरसों का मतवालापन
और फिर मेरी तमन्नाएँ भी
बेसाख्ता अनियंत्रित हो उठती हैं
विस्तृत आकाश में
एक लम्बी खुशनुमा उड़ान के लिए ,
अँधेरे की चादर को
जुगनुओं कि रिहाइशगाह बनाने
या हवाओं में इन्द्रधनुषी
फूल उगाने कि तमन्ना
अनायास ही अंगडाई लेने लगती है ,
मौसम कि पिघलती आग
जो एक-एक मुट्ठी हर बार
इकट्ठा होती रही है मेरे अन्दर ;
अब बर्फ के उस पहाड़ कि शक्ल में है
जो कभी नहीं पिघलती
बस दर्द कि इंतहाई मेहरबानी से
कभी - कभी उसके पिघलने का भरम होता है ,
पर इस बार बसंत
क्यों मै कुछ घबराई हुई सी हूँ
मेरे इनकार में वो मजबूती
नज़र नहीं आती मुझे ;
तुमने इस बार
कहीं किसी जानी- पहचानी शक्ल और
उसी पुराने अहसास के साथ ही
तो मुझे दस्तक नहीं दी है ?
कहो न बसंत ....
क्योंकि इस बार
लहराती ठंडी हवाओं
और सूरज कि मुस्कुराती तपिश ने
बड़े ठहराव से मेरे कमरे के हर गोशे को
रौशन और जीवन्त कर दिया है ,
मै नहीं जानती
ये कैसे और क्यों है
पर न जाने क्यों कुछ शब्द
रह-रहकर मचल जाते है ;
आज एक बार फिर
गुनगुनाने को जी चाहता है
मुस्कुराने को जी चाहता है
पर बसंत .....मैंने तो .....................................!!
अर्चना राज !!
कि बसंत क्यों लौट आता है
हर बार मेरी चौखट पर
भावनाओं कि चुनौती लेकर ,
मैंने तो बरसों पहले ही
विदा कर दिया था उसे
तमाम उम्र के लिए
पूरी संजीदगी से ;
पर हर साल उसकी थपथपाहट
सुनाई पड़ती है धडकनों में
और मेरे अहसास भी कमबख्त
कुछ-कुछ जाग उठते हैं ,
दिखाई पड़ने लगता है हर तरफ
पीली सरसों का मतवालापन
और फिर मेरी तमन्नाएँ भी
बेसाख्ता अनियंत्रित हो उठती हैं
विस्तृत आकाश में
एक लम्बी खुशनुमा उड़ान के लिए ,
अँधेरे की चादर को
जुगनुओं कि रिहाइशगाह बनाने
या हवाओं में इन्द्रधनुषी
फूल उगाने कि तमन्ना
अनायास ही अंगडाई लेने लगती है ,
मौसम कि पिघलती आग
जो एक-एक मुट्ठी हर बार
इकट्ठा होती रही है मेरे अन्दर ;
अब बर्फ के उस पहाड़ कि शक्ल में है
जो कभी नहीं पिघलती
बस दर्द कि इंतहाई मेहरबानी से
कभी - कभी उसके पिघलने का भरम होता है ,
पर इस बार बसंत
क्यों मै कुछ घबराई हुई सी हूँ
मेरे इनकार में वो मजबूती
नज़र नहीं आती मुझे ;
तुमने इस बार
कहीं किसी जानी- पहचानी शक्ल और
उसी पुराने अहसास के साथ ही
तो मुझे दस्तक नहीं दी है ?
कहो न बसंत ....
क्योंकि इस बार
लहराती ठंडी हवाओं
और सूरज कि मुस्कुराती तपिश ने
बड़े ठहराव से मेरे कमरे के हर गोशे को
रौशन और जीवन्त कर दिया है ,
मै नहीं जानती
ये कैसे और क्यों है
पर न जाने क्यों कुछ शब्द
रह-रहकर मचल जाते है ;
आज एक बार फिर
गुनगुनाने को जी चाहता है
मुस्कुराने को जी चाहता है
पर बसंत .....मैंने तो .....................................!!
अर्चना राज !!
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