Sunday, 29 January 2012

बसंत

मै नहीं जानती
कि बसंत क्यों लौट आता है
हर बार मेरी चौखट पर
भावनाओं कि चुनौती लेकर ,

मैंने तो बरसों पहले ही
विदा कर दिया था उसे
तमाम उम्र के लिए
पूरी संजीदगी से ;
पर हर साल उसकी थपथपाहट
सुनाई पड़ती है धडकनों में
और मेरे अहसास भी कमबख्त
कुछ-कुछ जाग उठते हैं ,

दिखाई पड़ने लगता है हर तरफ
पीली सरसों का मतवालापन
और फिर मेरी तमन्नाएँ भी
बेसाख्ता अनियंत्रित हो उठती हैं
विस्तृत आकाश में
एक लम्बी खुशनुमा  उड़ान के लिए ,

अँधेरे की चादर को
जुगनुओं कि रिहाइशगाह बनाने
या हवाओं में इन्द्रधनुषी
फूल उगाने कि तमन्ना
अनायास ही अंगडाई लेने लगती है ,

मौसम कि पिघलती आग
जो एक-एक मुट्ठी हर बार
इकट्ठा होती रही है मेरे अन्दर ;
अब बर्फ के उस पहाड़ कि शक्ल में है
जो कभी नहीं पिघलती
बस दर्द कि इंतहाई  मेहरबानी से
कभी - कभी उसके पिघलने का भरम होता है ,

पर इस बार बसंत
क्यों मै कुछ घबराई हुई सी हूँ
 मेरे इनकार में वो मजबूती
नज़र नहीं आती मुझे ;
तुमने इस बार
कहीं किसी जानी- पहचानी शक्ल और
उसी पुराने अहसास के साथ ही
तो मुझे दस्तक नहीं दी है ?
कहो न बसंत ....
क्योंकि इस बार
लहराती ठंडी हवाओं
और सूरज कि मुस्कुराती तपिश ने
बड़े ठहराव से मेरे कमरे के हर गोशे को
रौशन और जीवन्त कर दिया है ,

मै नहीं जानती
ये कैसे और क्यों है
पर न जाने क्यों कुछ शब्द
रह-रहकर मचल जाते है ;
आज एक बार  फिर
गुनगुनाने को जी चाहता है
मुस्कुराने को जी चाहता है
पर बसंत .....मैंने तो .....................................!!



              अर्चना राज !!




























































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