Wednesday, 4 January 2012

दर्द का अस्तित्वबोध


दो मुट्ठी मिटटी दी थी तुमने मुझे
अपने दर्द की सख्त जमीन को खोदकर ;
कहा था की लो---लो इसे और जाओ
मिला दो इसे अपनी तमाम खुशियों की विशाल इमारत में ,
जब भी कभी कुछ पल के लिए ही सही
खुशियाँ तुम्हें अकेला छोड़ें
तुम तनहा महसूस करो खुद को खुद को
तब पाओगी कि तुम दरअसल तनहा नहीं हो ;
मेरा दर्द और तुम्हारी तन्हाई मित्र हैं बचपन के
ये मित्रता हर सांस तुम्हारा साथ देगी ,

मै चकित ,भ्रमित और स्तब्ध
*******************
यूँ ही देखती रही तुम्हारी ओर ---निर्निमेष
तुम्हारी उन आँखों में जो बस भावहीन थीं
और बेहद तटस्थ ,

मै लौट आई आहत ..खामोश
रख दिया उस दो मुट्ठी मिटटी को
अपने तमाम अहसासों के संग ,
एक दिन जब मैंने उसे एक मूरत में बदलना चाहा
तो अनायास ही अनगिनत दरारें नज़र आयीं उसमे ,
बहुत कोशिश की मैंने भरने की उन दरारों को
पर लगा जैसे ..मेरा और तुम्हारा
हम दोनों का ही मौन दर्द
अपना अस्तित्वबोध बनाये रखना चाहता है ,

वो जीवित रहना चाहता है
मेरे अहसासों के विस्तृत आँगन में ,

एक बार फिर इस दर्द की मूरत को
अनगिनत खूबसूरत रंगों से सजाने की कोशिश की मैंने ;
पर ये तमाम खुशनुमा रंग उस मूरत का स्पर्श पाते ही
अचानक स्याह रंग में तब्दील हो जाते ,

वो कुछ कतरे धूप के
जो कभी मेरी खुशियों सा खिला करते थे ;
उसकी कठोर तपिश ने
इस मूरत को कुछ और सख्त
कुछ और ज्यादा स्याह कर दिया है ,

अब
इसी स्याह मूरत के संग
जो प्रतीक है
हमारे मिश्रित दर्द के अस्तित्वबोध की ;
मैंने उम्र भर रहने की ठानी है ;
क्योंकि मेरे पास अंतहीन तन्हाई है
और तुमने ही तो कहा था न
मेरी तन्हाई और तुम्हारा दर्द बचपन के मित्र हैं ;
तो अब ये मित्रता यूँ ही ताउम्र निभेगी
एक ईमानदार चेतना के साथ पूरी शिद्दत से
मेरे हम्न्फ्ज़ !!!



अर्चना राज !!


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