सपने सहेजते हैं हम सब
जीते हैं उन्हें ;
उनकी मुस्कुराहटों
और उनकी खुशियों को भी ;
क्योंकि ये
सहज ; सुगम और प्रिय होते हैं ,
कभी - कभी यूँ ही
एक आभाष मात्र होता है
स्वयं के जागने का ;
पर हम आँखें नहीं खोलते
मींच लेते हैं और कसकर ;
क्योंकि हम डरते हैं हकीकत से ;
कि यदि कोई यथार्थ
अपने वीभत्स रूप में
सामने खड़ा मिला
तो फिर क्या करेंगे ;
कैसे उसको नज़रंदाज़ करेंगे
और क्या कर भी पायेंगे ,
ऐसा यथार्थ जो अक्सर
इंसानियत को ही शर्मिंदा कर देता है;
जहां बेटियां करती हैं
अपनी अस्मतों का सौदा
अनिवार्य रूप से मजबूरी में ;
या जहां बेटे घूमते हैं
ऊँची डिग्रियां लेकर
फटे जूते पहने
भूखे पेट ;
शर्मिंदगी से
देर रात के बाद
घर लौटते हैं;
क्योंकि
घर वालों के चेहरों पर
ठहरे हुए प्रश्नों के उत्तर
न दे पाने कि विवशता से
बचना चाहते हैं;
या जहाँ बच्चों कि
मामूली सी चाहत भी
माँ-बाप कि आँखों में बेचारगी
और आंसुओं का सबब बन जाती है ,
या फिर जहां मासूम बचपन
किसी कि विकृत मानसिकता को
राहत पहुँचाने का एक साधन बन जाता है,
इसीलिए हम सब डरते हैं
हकीकत का सामना करने से ;
क्योंकि उन्हें झेल नहीं पाते हैं;
आँखें खुली रखकर
अस्वीकार करने की हिम्मत नहीं है
और स्वीकार करने में
अब भी थोड़ी शर्म आती है हमें ;
तो हम बस सपने देखते हैं
उन्हें ही जीते हैं
अपने सहज ; सुगम और
स्वाभाविक रूप में
और वो प्रिय भी होते हैं
क्योंकि यहाँ
हमारा आत्मसम्मान
बना रहता है !!!
अर्चना राज !!
जीते हैं उन्हें ;
उनकी मुस्कुराहटों
और उनकी खुशियों को भी ;
क्योंकि ये
सहज ; सुगम और प्रिय होते हैं ,
कभी - कभी यूँ ही
एक आभाष मात्र होता है
स्वयं के जागने का ;
पर हम आँखें नहीं खोलते
मींच लेते हैं और कसकर ;
क्योंकि हम डरते हैं हकीकत से ;
कि यदि कोई यथार्थ
अपने वीभत्स रूप में
सामने खड़ा मिला
तो फिर क्या करेंगे ;
कैसे उसको नज़रंदाज़ करेंगे
और क्या कर भी पायेंगे ,
ऐसा यथार्थ जो अक्सर
इंसानियत को ही शर्मिंदा कर देता है;
जहां बेटियां करती हैं
अपनी अस्मतों का सौदा
अनिवार्य रूप से मजबूरी में ;
या जहां बेटे घूमते हैं
ऊँची डिग्रियां लेकर
फटे जूते पहने
भूखे पेट ;
शर्मिंदगी से
देर रात के बाद
घर लौटते हैं;
क्योंकि
घर वालों के चेहरों पर
ठहरे हुए प्रश्नों के उत्तर
न दे पाने कि विवशता से
बचना चाहते हैं;
या जहाँ बच्चों कि
मामूली सी चाहत भी
माँ-बाप कि आँखों में बेचारगी
और आंसुओं का सबब बन जाती है ,
या फिर जहां मासूम बचपन
किसी कि विकृत मानसिकता को
राहत पहुँचाने का एक साधन बन जाता है,
इसीलिए हम सब डरते हैं
हकीकत का सामना करने से ;
क्योंकि उन्हें झेल नहीं पाते हैं;
आँखें खुली रखकर
अस्वीकार करने की हिम्मत नहीं है
और स्वीकार करने में
अब भी थोड़ी शर्म आती है हमें ;
तो हम बस सपने देखते हैं
उन्हें ही जीते हैं
अपने सहज ; सुगम और
स्वाभाविक रूप में
और वो प्रिय भी होते हैं
क्योंकि यहाँ
हमारा आत्मसम्मान
बना रहता है !!!
अर्चना राज !!
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