Tuesday 17 April 2012

तुम्हारी ख़ामोशी

तुम अब भी खामोश हो ...........
ख़ामोशी क्या अब भी तुम्हे शब्दों से ज्यादा सुकून देती है
या फिर इसकी ओट में तुम मुझसे वो सब कहने से
खुद को रोक पाते हो जो मै बहुत शिद्दत से सुनना चाहती हूँ ,

क्या मेरा चाहना तुम्हारे लिए रेत के उस घरौंदे की तरह है
जो बनते हुए ही बार-बार, न जाने कितनी बार बिखर जाया करता है
या फिर सहरा में उडती उस अदृश्य लहर की तरह
 जिसका न थमना भी रेत के समन्दर के लिए कोई मायने नहीं रखता ,

बासंती हलचलों से तुम क्यों इस कदर घबरा जाया करते हो
और क्यों पक्षियों का कलरव भी तुम्हें शोर सा लगता है ,
दिन की गुनगुनी धुप भी तुम खुद में नहीं संभाल पाते
और न ही चाँद की आशिकमिजाजी को नज़र भर देखने की चाह रखते हो ,

आसमान पर लहराता सिन्दूरी आँचल भी क्यों कभी तुममे उमंगें नहीं जगाता
और क्यों तुम तमाम प्राकृतिक हरियाली को मेरी साड़ी के किनारे पर 
गोटे सा लगाने की ख्वाहिश नहीं रखते ,

क्या मै तुम्हारे लिए इस कदर अस्तित्वहीन हूँ कि
तुम्हारी ठहरी हुई आँखों में मुझे देखकर कभी कोई विचलन नहीं होती
या फिर तुम्हारी भावनाएं ही इस कदर नियंत्रित और जड़ हैं 
कि जिनमे मेरी बेचनी भी कभी कोई हलचल नहीं जगा पाती,


परन्तु तुम तो अब तक भी खामोश हो 
शायद तुम्हें खुद का मेरे साथ होने से मेरा सामने होना ज्यादा सुकून देता है 
और ये भी तो हो सकता है कि तुम्हारा तटस्थ मौन ही तुम्हारे प्रेम का सबसे सबल प्रमाण हो .
पर न जाने क्यों एक बार फिर  तुम्हारी ख़ामोशी 
 मुझे  दर्द के  समन्दर में तब्दील करती जा रही है !!




                                   अर्चना "राज "





























 








































1 comment:

  1. शायद तुम्हें खुद का मेरे साथ होने से मेरा सामने होना ज्यादा सुकून देता है

    बहौत ही लाजवाब रचना है... बधाई

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