Sunday 2 December 2012

काश

पढ़ पाती जो तुम्हारा जहन तो शायद
यूं रोज़-रोज़ लावे सा मेरा अंजाम न होता ;
कैद कर लेती उस वक्त को मुट्ठी मे किसी सोते सा
जिस वक्त मे धुंध भी तुम्हारी साँसों सी महसूस होती थी ,
रोप लेती उन धडकनों को छुई-मुई के पौधों सा खुद मे
जब दिन का कोई लम्हा अचानक ही बेहद सुर्ख हो आता था
और हरारत बोझिल सी पलकों पे बिखर जाती थी ,

पढ़ पाती जो तुम्हारा जहन तो शायद
यूं न होता की हर शाम किसी शाख से टूटा कोई पत्ता होती
या हर रात मई सी जला करती मुझमे ,

पढ़ पाती तुम्हारा जहन तो यूं करती कि
सारी कायनात मे कोई दरवाजा कभी बाहर को न खुलता ;
तेरे हर कदम पर मेरा अहसास हिमालय होता
तेरी हर सांस कि दहलीज़ मेरी सांसें होतीं ;
हर सुबह मेरी मुस्कान
हर शाम मेरी ख़्वाहिश होती ,

पढ़ पाती जो तुम्हारा जहन तो शायद यूं न होता
कि मेरी उम्र हर रोज़ किसी मौत के आगोश मे पलती !!


               अर्चना राज

2 comments:

  1. bAHUT HI SUNDAR KAVITA HAI. bHAVON SE BHARPOOR

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  2. बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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