Sunday 6 January 2013

दरख्वास्त

जिस्म की चीखें मौन की सरहद पर सहमी हुई हैं
ख़्वाहिशों मे बेशक आवारगी हवाओं की हो ,

कभी-कभी ढलती शाम की भी पैमाइश होती है
पलकों के कोरों मे या आँचल की गांठ बांधती उंगलियों के कंपन मे ,
कुछ मुट्ठी भर धूप सीने मे चिंगारी सी हो आती है
तब बेबात ही ज़ोर-ज़ोर से झल्लाना भी यूं ही नहीं होता ,

रातों मे अक्सर जब कोई स्पर्श महसूस भर होता है
न जाने कैसे सारा आलम ही यूं भीगा-भीगा सा नज़र आने लगता है
मौन ही एक अकेली दरख्वास्त है तुम्हारे आने की
और तुम्हारे न आने की भी ,

शब्दों का फर्क मत देखो
वेदना अक्सर मन की होती है !!


अर्चना राज 

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