Monday, 27 November 2017

हो सकता है

राख से रचा फूल
आग में पकी कविता
हो सकती है ,
हो सकता है 
दूध का चन्द्रमा बनना
और सूरज का होना रेत ,
पहाड़ का मिटटी बनना भी मुश्किल नहीं
न ही नदी का सूखकर कुछ जगह उधार देना
अगर बोना हो उसमे गुलाब
उगानी हो नज़्म ,
एक हरे आसमान की कल्पना भी नामुमकिन नहीं
महसूसनी हो गर वहां समन्दर की आत्मा
देखना हो ढेरों बत्तखों का झुण्ड ,
तितलियों को मौसम का प्रेम भी कह सकते हैं
जो बिखरा होता है उनके पंखों पर
उड़ते हुए कभी कभी छिटक भी जाता है
जैसे छिटक जाती है रोली टीका करते समय
या जैसे छिटक जाता है सिन्दूर भरते हुए कोई सूनी मांग ,
ये सब उतना ही संभव है
कि जितना संभव है
आलमारी में पड़ी पुरानी किसी डायरी का अचानक हाथ लगना
पीले पड चुके पन्नों में से किसी एक का गुलाबी हो जाना
उस पर बार बार तराशकर लिखे गए एक नाम का पिघलकर गीला हो जाना
और हो जाना नज़रों का पहले झिलमिल
और फिर क्रमशः आत्मा का बोझिल हो जाना !!

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