एक रोज धूप बरसी हम पर मुट्ठी मुट्ठी ,
उस रोज हुआ पीपल कि शनिचर हो जैसे
उस रोज भई मिट्टी भी जैसे राख,
लगे फिर पत्ती थामे फूल कि जैसे हों चूरा,
उस रोज हरहरा आइ गई गंगा छाती मेँ ,
सब परबत पत्थर हों कसकर सन्नाय गये फिर देह पर जैसे,
उस रोज भई मिट्टी भी जैसे राख,
लगे फिर पत्ती थामे फूल कि जैसे हों चूरा,
उस रोज हरहरा आइ गई गंगा छाती मेँ ,
सब परबत पत्थर हों कसकर सन्नाय गये फिर देह पर जैसे,
सन्नाटा पसरा आवाज के भीतर भीतर
और धप्प से सूरज पूरा का पूरा पलटा आंखों के ऊपर,
और धप्प से सूरज पूरा का पूरा पलटा आंखों के ऊपर,
उस रोज लगा कोई छूट गया
कुछ टूट गया
उस रोज लगा दुख पारे वाला झरना है
इसको जीवन भर गिरना है
मन पर मेरे।
कुछ टूट गया
उस रोज लगा दुख पारे वाला झरना है
इसको जीवन भर गिरना है
मन पर मेरे।
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