Monday, 27 November 2017

सर्दियाँ

सांवली हंसी पर
पीली नरम धूप सी तुम
जो कहती है मुझसे
कौन हो तुम,
मैं सोचता हूं
हां कौन हूं मैं आखिर,
तुम्हारी ही तिरछी मीठी नजरें
तुम्हारा यूँ उत्तप्त होना
निहारना मुझे
खोल देता है फिर भेद ,
मैं विहंस पडता हूँ
दिल अब भरा भरा सा है
जैसे भरा होता है झरने के नीचे का गड्ढा
या जैसे भरा होता है पहाड़ी चश्मा
या जैसे उन्मुक्त जंगल
या जैसे बुरांश के पेड़
गुलाबों का बगीचा
या जैसे भरा हो तालाब ढेरों कमल से,
ओहह प्रेम
तुमने दस्तक दे ही दी ,
कया सर्दियां लौट आई हैं
फिर ??

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