Monday, 27 November 2017

माँ

मां
गुडिया बनाती थीं मेरे लिये
कपडों की ,
बार्बी डाल्स नहीं होती थी न तब
अपनी पुरानी सुंदर साडियाँ कुछ कतरनें 
मेरे फ्राक की फ्रिल्स
रंग बिरंगे बटन्स
और चमकीले सोने चांदी से गोटे
इन सबको मिलाकर बनती थी एक गुडिया
रंगीन धागों से फिर मां बनाती थीं
उनकी आंखें, नाक,होंठ
और चटक लाल बिंदी बडे से माथे पर
जो मुझे सबसे ज्यादा लुभाती,
जब मैं उन्हें छूती तो मां कहतीं हंसकर
तुम्हें भी ऐसे ही लगाऊंगी
मैं खुश हो जाती
फिर मां मेरी मालाओं के बिखरे मोतियों से चूडियां बनातीं
मां उन्हें पायल भी पहनातीं
मेरी पुरानी टूट चुकी पायल के घुंघरू बस
फिर गोटे वाले आंचल से सिर ढककर कहतीं
लो हो गई मेरी गुडिया की गुडिया तैयार
मैं दौडकर उनसे लिपट जाती
उन्हें चूम लेती,
आज फिर जी चाहता है
मां एक गुडिया बनायें
जिनके कपडों से उन्हीं की सी खुशबू आये
जिनकी आंखों से उन्हीं का सा दुलार झरे
जिनके होंठों पर उन्हीं की सी लोरी गूंजे
और हां
जिनके माथे पर सजी हो बडी सी
चटक लाल बिंदी
जैसे वो लगाती थीं
कि जैसे अब मैं लगाती हूँ,
पर मां नहीं बनातीं गुडिया अब
दूर चली गई हैं बहुत।

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