Thursday 18 July 2013

एक बेटी की डायरी




 

बेटी होना उस वक्त ही समझ आने लगा था जब दादी सारे फल और सारी मिठाइयाँ जाली की अलमारी में बंद करके चाभी अपने सिराहने रखा करती थीं ..अक्सर उनको कहते सुना था की ये तो मेरे पोते के लिए है ..ये क्यों खाएगी ..लड़की है पराये घर जाना है ..जीभ पर लगाम होनी चाहिए ...!! तब ये बातें पूरी तरह समझ तो नहीं आती थीं पर फिर भी आँख भर जाती थी ...माँ की आँखों में भी मायूसी उतर आती पर वो दादी से कुछ कहने का जोखिम नहीं उठा सकती थीं ..मेरी तेज तर्रार दादी का बहुत रौब हुआ करता था ..मैंने सुना है की पूरे परिवार में वो सिर्फ मेरे पिता का लिहाज़ करती थीं क्योंकि शुरू से वो उन्हें कुछ ज्यादा ही प्रिय थे और दुसरे उनकी प्रकृति बहुत गंभीर थी ..बहुत कम बोलते थे ..शायद ये भी एक वजह रही हो ...खैर मायूसी को मेरी माँ ज्यादा देर टिकने नहीं देतीं और मुझे कभी टॉफी तो कभी हलवा या फिर कभी किसी और तरीके से मना लिया करती थीं ..मै भी कुछ ही देर में सब भूल जाती ..शायद बच्ची का कोमल मन था इसलिए ..पर मेरे जाने के बाद मेरे माँ को ये बहुत कचोटता था जैसा कि वो अक्सर मुझे बाद में बताती थीं ..!

अच्छी तरह से समझ आने के पहले ही मेरी दादी गुजर गयीं ...इसलिए ज्यादा तो कुछ याद नहीं आता पर हाँ वो अक्सर मेरे बालों में तेल डालकर दो चोटी बना दिया करती थीं मेरे रोते रहने के बावजूद ..पर मै भी बहुत जिद्दी थी ..आखिर तो उन्ही दादी कि पोती थी न ..जाकर तुरंत बालों को साबुन से धो दिया करती {उस वक्त शम्पू नहीं हुआ करते थे या फिर उनका ज्यादा चलन नहीं था }.
वो बहुत नाराज़ होतीं ..माँ को सुना सुना कर बहुत कुछ कहा करतीं पर मै तो वहा होती ही नहीं थी ..दरअसल उस वक्त मै मज़े से अपनी सबसे अच्छी दोस्त को..जो मेरे घर के बगल वाले घर में रहती थी .... उनके और अपने बारे में बता रही होतो थी ..और फिर हम दोनों खूब मज़े से हँसते थे ..ये मेरा तरीका था उनसे बदला लेने का..!! बचपन शायद इन्हीं बालसुलभ हरकतों कि वजह से हमेश बहुत प्रिय होता है . पर ये भी कुछ देर ही चलता क्योंकि तभी माँ आतीं और हलकी नाराज़गी से कहतीं ..ये तुमने ठीक नहीं किया ..ये गलत बात है ..चलो दादी से माफ़ी मांगो ..मुझे बहुत बुरा लगता पर माँ के डर कि वजह से जाना पड़ता और माफ़ी भी मांगनी पड़ती .
दादी संतुष्टि के साथ मुस्कुरा देतीं और कभी अगर मन होता तो एक आध मिठाई या फल भी देतीं ..!!

शायद ये माओं का स्वाभाविक तरीका होता है बच्चों में संस्कार और अनुशासन कि भावना को डालने का जिससे हम भविष्य में बेहतर इंसान बन सकें .

   खैर दादी तो नहीं रहीं पर फिर भी एक अहसास बना रहा भाई से कमतर होने का ..बहुत चुभता था ..पर छोटी थी शायद इसलिए कुछ कह नहीं पाती थी ..कभी कहा भी तो बात हंसी में उड़ा दी गयी ..! बहुत छोटी छोटी बातें होती थीं पर बुरा लगता था ...जैसे किसी दिन दूध कम  आया तो बस भाई को मिलता था ..मुझे नहीं ..या फिर चाय बनी है तो अगर चाय में कुछ गिर गया तो मेरे पिता तुरंत कहते.. कोई बात नहीं ..तुम ये चाय ले लो वो बाद में पी लेगी ..क्यों ..और फिर मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखते ..मुझे बुरा लगता था .मै कहना चाहती थी कि .क्यूँ ..पर आवाज़ आती थी.. क्यूँ नहीं ..मै बाद में ले लूंगी ..मै समझदार जो थी ..और भाई के लिए तो ये करना तो स्वाभाविक ही माना जाता है हमारे समाज  में ..है न ?????

यकीन मानिये मै बुरी नहीं हूँ ..मै अपने घरवालों से बेहद प्यार करती हूँ ..बस कभी कभी जब ये सब याद आता है तो लड़की होना खल जाता है ..और एक सवाल उठता है ..क्यों ???  और इस क्यों का जवाब कभी नहीं मिलता !

 

बेटी होना उस वक्त ही समझ आने लगा था जब दादी सारे फल और सारी मिठाइयाँ जाली की अलमारी में बंद करके चाभी अपने सिराहने रखा करती थीं ..अक्सर उनको कहते सुना था की ये तो मेरे पोते के लिए है ..ये क्यों खाएगी ..लड़की है पराये घर जाना है ..जीभ पर लगाम होनी चाहिए ...!! तब ये बातें पूरी तरह समझ तो नहीं आती थीं पर फिर भी आँख भर जाती थी ...माँ की आँखों में भी मायूसी उतर आती पर वो दादी से कुछ कहने का जोखिम नहीं उठा सकती थीं ..मेरी तेज तर्रार दादी का बहुत रौब हुआ करता था ..मैंने सुना है की पूरे परिवार में वो सिर्फ मेरे पिता का लिहाज़ करती थीं क्योंकि शुरू से वो उन्हें कुछ ज्यादा ही प्रिय थे और दुसरे उनकी प्रकृति बहुत गंभीर थी ..बहुत कम बोलते थे ..शायद ये भी एक वजह रही हो ...खैर मायूसी को मेरी माँ ज्यादा देर टिकने नहीं देतीं और मुझे कभी टॉफी तो कभी हलवा या फिर कभी किसी और तरीके से मना लिया करती थीं ..मै भी कुछ ही देर में सब भूल जाती ..शायद बच्ची का कोमल मन था इसलिए ..पर मेरे जाने के बाद मेरे माँ को ये बहुत कचोटता था जैसा कि वो अक्सर मुझे बाद में बताती थीं ..!

अच्छी तरह से समझ आने के पहले ही मेरी दादी गुजर गयीं ...इसलिए ज्यादा तो कुछ याद नहीं आता पर हाँ वो अक्सर मेरे बालों में तेल डालकर दो चोटी बना दिया करती थीं मेरे रोते रहने के बावजूद ..पर मै भी बहुत जिद्दी थी ..आखिर तो उन्ही दादी कि पोती थी न ..जाकर तुरंत बालों को साबुन से धो दिया करती {उस वक्त शम्पू नहीं हुआ करते थे या फिर उनका ज्यादा चलन नहीं था }.
वो बहुत नाराज़ होतीं ..माँ को सुना सुना कर बहुत कुछ कहा करतीं पर मै तो वहा होती ही नहीं थी ..दरअसल उस वक्त मै मज़े से अपनी सबसे अच्छी दोस्त को..जो मेरे घर के बगल वाले घर में रहती थी .... उनके और अपने बारे में बता रही होतो थी ..और फिर हम दोनों खूब मज़े से हँसते थे ..ये मेरा तरीका था उनसे बदला लेने का..!! बचपन शायद इन्हीं बालसुलभ हरकतों कि वजह से हमेश बहुत प्रिय होता है . पर ये भी कुछ देर ही चलता क्योंकि तभी माँ आतीं और हलकी नाराज़गी से कहतीं ..ये तुमने ठीक नहीं किया ..ये गलत बात है ..चलो दादी से माफ़ी मांगो ..मुझे बहुत बुरा लगता पर माँ के डर कि वजह से जाना पड़ता और माफ़ी भी मांगनी पड़ती .
दादी संतुष्टि के साथ मुस्कुरा देतीं और कभी अगर मन होता तो एक आध मिठाई या फल भी देतीं ..!!

शायद ये माओं का स्वाभाविक तरीका होता है बच्चों में संस्कार और अनुशासन कि भावना को डालने का जिससे हम भविष्य में बेहतर इंसान बन सकें .

   खैर दादी तो नहीं रहीं पर फिर भी एक अहसास बना रहा भाई से कमतर होने का ..बहुत चुभता था ..पर छोटी थी शायद इसलिए कुछ कह नहीं पाती थी ..कभी कहा भी तो बात हंसी में उड़ा दी गयी ..! बहुत छोटी छोटी बातें होती थीं पर बुरा लगता था ...जैसे किसी दिन दूध कम  आया तो बस भाई को मिलता था ..मुझे नहीं ..या फिर चाय बनी है तो अगर चाय में कुछ गिर गया तो मेरे पिता तुरंत कहते.. कोई बात नहीं ..तुम ये चाय ले लो वो बाद में पी लेगी ..क्यों ..और फिर मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखते ..मुझे बुरा लगता था .मै कहना चाहती थी कि .क्यूँ ..पर आवाज़ आती थी.. क्यूँ नहीं ..मै बाद में ले लूंगी ..मै समझदार जो थी ..और भाई के लिए तो ये करना तो स्वाभाविक ही माना जाता है हमारे समाज  में ..है न ?????

यकीन मानिये मै बुरी नहीं हूँ ..मै अपने घरवालों से बेहद प्यार करती हूँ ..बस कभी कभी जब ये सब याद आता है तो लड़की होना खल जाता है ..और एक सवाल उठता है ..क्यों ???  और इस क्यों का जवाब कभी नहीं मिलता !



एक बेटी की डायरी -------२





कहानी को आगे बढ़ाने से पहले कुछ कहना चाहती हूँ ..मेरे कुछ अज़ीज़ दोस्तों को लगा की शायद ये मेरी खुद की डायरी के पन्ने हैं ..पर ऐसा नहीं है ...ये तो अमूमन हर लड़की की जिन्दगी का आम हिस्सा है जो उसे हमेशा चुभता है ..टीस देता है .. पर कभी संस्कारों तो कभी समझदारी तो कभी किसी और तरह के दबाव की वजह से वो कह नहीं पाती ...मैंने ऐसे ही कुछ दर्द को (जो अक्सर नज़रंदाज़ कर दिए जाते हैं ) यहाँ उकेरने की कोशिश की है ...सफलता का पैमाना तो आप लोग ही तय करेंगे !

                                                                                   धन्यवाद

अब आगे ------

आज फिर याद आती है वो एक घटना जो उस वक्त मुझे बहुत रुला गयी थी और दोस्तों की नज़रों में उभरे प्रश्न भी अपमानित करते से ही महसूस हुए थे ..दरअसल खेल कूद में मेरी रूचि थी ...स्कूल के वार्षिक खेल प्रतियोगिता के शुरूआती दौर में मै अप्रत्याशित रूप से चुन ली गयी थी ..बेहद खुश थी ...छुट्टी के बाद घर पहुंचकर हुलसते हुए ये खबर मैंने माँ को दी ..वो खुश हुईं पर मुस्कुराकर रह गयीं ..पिता और भाई के वापस लौटने के बाद मैंने ये खबर उन्हें भी सुनाई ..वो भी बस मुस्कुराकर रह गए ...शाबाशी देना तो दूर  तारीफ में कुछ कहना भी जरूरी नहीं समझा . मै मायूस हो गयी ..बाद में मैंने उन लोगों को बात करते सुना ..अरे , इसकी क्या जरूरत है ..खेल कूद कर क्या करेगी ..चोट- वोट लग गई तो ..लड़की है ..मुसीबत हो जाएगी ..बाकी कुछ भी  करे ..कल्चरल प्रोग्राम में हिस्सा ले ..ड्राइंग कॉम्पिटिशन में हिस्सा ले ..कह देना उसको...ये फरमान मेरी माँ के लिए था ..जिन्हें खुद भी ये फैसला गलत नहीं लगा था ...मैंने उनको कहते सुना था कि..अरे वो समझदार है ..मान जाएगी ..आप फ़िक्र मत करिए , सभी संतुष्ट थे इस फैसले पर सिवाय मेरे ...मुझे अपनी माँ पर बेहद गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने भी मुझे नहीं समझा ..और दूसरा; उस दिन बहुत अफ़सोस हुआ अपनी समझदारी पर ...मै रात में रजाई के अन्दर छुपकर खूब रोई ..खूब कोसा मैंने अपने लड़की होने को उस रात ..तब शायद मै तीसरी या चौथी में थी ..बहुत बड़ी भी नहीं थी ..बड़ों का नजरिया भी नहीं समझती थी (अब समझने लगी हूँ )
अगली सुबह जब सोकर उठी तो मन तटस्थ था ..न तो बहुत उछली कूदी ..न कोई शैतानी की ..न भाई को परेशान किया ..न ही स्कूल जाने से पहले नाश्ते कि टेबल पर माँ से कोई न- नुकुर की ...बस चुपचाप सब कुछ करती रही ...भाई ने मजाक भी किया ..आज हो क्या गया है तुम्हे ..तबियत खराब  है या फिर शैतानी का कोई नया आईडिया नहीं सूझ रहा ..पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया ... शायद वो समझ नहीं पा रहे थे कि एक ही रात में मै कुछ और समझदार हो गयी थी (?).सर को मना करते वक्त ..दोस्तों से झूठा बहना बनाते वक्त कितना अपमानित महसूस हो रहा था ..इसे कोई भाई या कोई पिता कभी नहीं समझ सकता ..उस वक्त एक बच्ची कि मनोदशा का अंदाज़ा लगाना बेहद कठिन है ..अपनी इच्छाओं को दबा देना ..दबाते और मारते ही रहना शायद किसी लड़की के जीवन में समझदारी का सोपान माना जाता है ..जो जितना ही अपना और अपनी इच्छाओं को दबाया जाना स्वीकार करती है वो उतनी ही समझदार मानी जाती है ( आखिर ये कैसी विडम्बना है ..और क्यों है ).

उस दिन के बाद  से धीरे-धीरे समझ आने लगा की मै लड़की हूँ और मुझे वही काम करने चाहिए जो लड़कियों को शोभा दे .गाहे -बगाहे सुनाई पड़ता की लड़कियां ही घर की इज्ज़त होती हैं ..उन्हीं से घर का सम्मान बढ़ता है ..कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे पिता,भाई या माँ की नज़रें नीची हों ..मै अक्सर मन में सोचती की सारे समाज के सम्मान का ठेका क्या लड़कियों के सिर पर ही है ..लड़कों  के नहीं ..क्योंकि भाई के लिए ऐसी बातें मैंने कभी नहीं सुनी ..जैसे रात को बाहर नहीं जाना है ..जल्दी घर आया करो ..कहाँ जा रहे हो ..क्यों जा रहे हो ...!!  हाँ ..मेरी इस बात से आप लोग ये अंदाज़ा बिलकुल मत लगाइयेगा की मुझे अपने भाई से कोई द्वेष है या माता पिता से कोई नाराज़गी है ..दरअसल हमारा परिवार बहुत खुशहाल था और है भी ..कई मामलों में तो आदर्श भी कहा जाता है ..उस बड़े परिवार वाले ज़माने में हमारा परिवार अपेक्छा कृत छोटा था ...कई दूसरे परिवारों से अच्छा माहौल था हमारे घर का ..मुझे और भाई को लगभग एक जैसा ही व्यवहार मिलता था घर में ...देखकर कोई नहीं कह सकता था की कोई भेद-भाव है ..पर था ..जिसे सिर्फ मै महसूस करती थी ..बड़ी शिद्दत से ..शायद मेरी माँ भी ..पर उनके लिए ये सामान्य था ( आज मै उनको बेहतर समझ सकती हूँ ).

         यूँ ही वक्त गुजरता रहा ..मै और समझदार होती गयी ...इसी समझदारी ने मुझे कम बोलना सिखाया (ये भी अच्छी लड़कियों की एक विशेषता है ). मै चुप रहने लगी ..लोग मुझे शिष्ट -सभ्य कहकर मेरी तारीफ करते ..मै मुस्कुरा देती ..माँ - बाप के चेहरे पर एक संतुष्टि झलकती जो कहीं न कहीं मुझे भी सुकून देती . ...पता ही नहीं चला धीरे-धीरे कैसे मै अंतर्मुखी होती चली गयी ..अपने आपको अलग करती चली गयी ..अलग मानती चली गयी ..परिणाम ये हुआ की मेरी कोई भी अच्छी दोस्त नहीं बन पायी ..कुछ भी सोचने या करने से पहले मन में यही विचार उठता की कहीं इससे मेरे अपनों को तकलीफ तो नहीं होगी ..या फिर उनकी बेईज्ज़ती तो नहीं हो जायेगी ..जब ये प्रश्न सर्वोपरि हो गया तो बाकी सारी बातें इस वटवृक्छ की छाया में दबती चली गयीं ..सारी ख्वाहिशें ..सारी उम्मीदें इस प्रश्न के साए तले पनपने से पहले ही मुरझाने लगीं.

        यहाँ एक बात और कह देना भी मुझे नैतिक तौर पर जरूरी लगता है की मेरे भाई ने मुझे हमेशा सपोर्ट  किया ; वो हमेशा चाहते थे की मै कुछ ऐसा करूँ जिससे उन्हें मुझ पर गर्व हो ..पर क्योंकि वो भी मेरे पिता की तरह बहुत गंभीर प्रकृति के थे ..शायद इसलिए कभी खुलकर कुछ कह नहीं पाए ..या फिर ये हो सकता है की वो मेरे पिता के  विचारों को समझ जाते हों और फिर मुझे प्रेरित न कर पाते हों ..जो भी हो ..उन्होंने मुझे हमेशा गाइड किया ..मनोवैज्ञानिक तौर पर वो मुझे समझते थे ..पर दुर्भाग्य से वो एक लड़की का मन ..उसका दुःख कैसे समझ सकते थे ( बहन और लड़की होने में फर्क होता है ).


















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