Tuesday 21 January 2020

कशिश

नींद कच्ची ही थी
कि गैमेक्सीन की जानी पहचानी तेज़ महक आई
वही पाउडर जो किताबों को सुरक्षित रखने के लिए
छिडका करतीं थीं तुम उन पर
जिनकी महक मुझे लुभाती थी
कि जिसे तुम जहरीला कहा करती थीं
सख्त हिदायत भी देती थीं कि दूर रहूँ उनसे
पर तुम्हारी हिदायत कभी बंदिश नहीं हो सकी मेरे लिए ,
याद है जब ट्रांसफर के बाद हमारा सामन ट्रकों में चढ़ाया जा रहा था
मिलने आये लोगों में से हंसकर कहा था किसी ने
सामानों से ज्यादा तो किताबों की पेटियां हैं
तुम मुस्कुरा दी थीं
अपनी वही सौम्य मुलायम गरिमामय मुस्कान
और कितनी तो संतुष्ट और अनुभूत हो गयी थीं तुम
उस एक पल
किताबों का खासा शौक था तुम्हें
लगभग हर मासिक पत्रिका आती थी हमारे यहाँ
बड़ों से लेकर बच्चों तक की
और फिर उपन्यासों का भी तो ज़खीरा था हमारे यहाँ
पढ़ना किस कदर की भूख है
ये तुम्हें देखकर समझा जा सकता था
तुम्हारी ये भूख मैंने भी पाली है
तुम्हारी ही तरह गाने भी सुनती हूँ
वक्त मेरी भी पसंदीदा फिल्म है
थोड़ी सी बेवफाई देखकर तुमने पूछा था जो
वो भी याद है मुझे
मेरे जवाब ने तुम्हें मुतमईन किया था ,
तुम गर्मियों की रात में आंगन में सोते हुए अक्सर कहानियां सुनाती थीं
उस रानी की भी सुनाई थी
जो इस दुनिया में नहीं थी
पर जो अपने बच्चों का दुःख नहीं देख पाई
और जो रातरानी बनकर खिलने लगी हर रात
उनके बगीचे में
कि जिसमे से बच्चों को हर रात उनकी माँ की खुशबू महसूस होती
कि जिसके फूलों को वो कभी नहीं तोड़ते
कि जिसके मुरझा जाने पर वो उसे इकट्ठा करते रहते ,
उस रानी की तरह क्या तुम तक मेरा दुःख नहीं पहुँचता
नहीं देख पातीं तुम मुझे
आजकल मै रातरानी के पौधों के इर्द गिर्द घूमा करती हूँ
उसके फूलों को करीब से महसूस करती हूँ
पर उनमे कोई खुशबू नहीं होती तुम जैसी
मै फिर भी नहीं तोडती हूँ उन्हें
कि शायद कभी आ जाये उनमे से तुम सी अद्भुत खुशबू ,
बहुत ढूँढा
पर ऐसा कोई उपाय नहीं कि तुम्हें वापस पा सकूं
अपने पास रख सकूं
एक बार सुन सकूं
देख सकूं
छू सकूं ,
क्या उस दुनिया में वाकई इतनी कशिश है
कि जहाँ जाकर
तुम एक बार भी लौट नहीं पाई ..........

No comments:

Post a Comment