Tuesday, 16 January 2018

प्रेम ....फिर से

हरे सलवार कमीज में
अधेड़ उम्र बांधे
आंखों में थोड़े से जुगनू थामे
प्रेम का महुआ रस पीने
घबराई हुई सी चल पड़ी वो,
कस्बाई प्लेटफार्म पर
हर कदम के साथ
पुख्ता संशय
डांवाडोल यकीन
और हथेली में कसकर जकङा
हैंडबैग का सिरा
साहस हिलाने को पर्याप्त था,
ट्रेन चल पङने तक आहट की गैरमौजूदगी
डराती रही
कि अचानक ही सामने से धुंध छंटी
जोङी की एक हथेली सामने थी
और साथ ही था भरी चमक वाली मुस्कान लिए
घबराया हुआ सा कोई एक और,
सात घंटे का रास्ता कटा
कि जैसे परिंदों की उन्मुक्त परवाज
साँसों में बजता साज
फिर बेला रुखसती की,
ठीक इसी वक्त
वो ठीक ठीक समझ पायी
कि वो प्रेम में है
गंभीर प्रेम में
फिर से।

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