Tuesday, 2 January 2018

जीना

बहुत सर्दी थी कल रात
चिड़िया ठिठुरन से जम गयी
टटोलती रही कोई मकसूम तपिश ,एक मजबूत दामन
जो भर ले उसे छाती में
अपने देह की गर्मी से उसे महफूज़ कर दे 
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ ,
रात भर गीले सपने डराते रहे
बहकाते रहे
रात भर बिछौने का कोना थामे कटकटाती रही
रात भर लगता रहा कि फकत आसमान छत है उसकी
कहीं दूर बज रहा था वादियाँ मेरा दामन रास्ते मेरी बाहें
और उसे लगा की जिस्म लकडिया जाने तक ये गलन उसे नहीं छोड़ेगी
डर से उसने आँखें मूँद लीं
पर डर वो तो पुतलियों के बीच भी था
खो जाने का डर
मर जाने का डर ,
किसीने कहा था जब डर लगे गायत्री मन्त्र पढना
वो बुदबुदाने लगी ॐ भूर्भुवः स्वः
एक बार फिर ॐ भूर्भुवः स्वः
पर उसके आगे क्या था याद नहीं आ रहा
गलन रक्तप्रवाह पर हावी है शायद
गलन याददाश्त भी मिटा देती है शायद
मन्त्र अधूरा रहा डर बढ़ता रहा
सपनो की गलन हड्डी तक पहुँच गयी
देह चरमराने लगी
मुंह से थोड़ी थोड़ी भाप भी निकली
उसे लगा वो बरफ से भर गयी है ,
नीम बेहोशी में किसी का हाथ थामे वो मस्जिद जा रही है
खुश ,चहकती
अब हलकी हलकी नींद भी आ रही है
कोई उसे दुआ माँगना सीखा रहा है
नन्हीं नन्हीं हथेलियों में प्यार बरसा रहा है
फ्रॉक की जेबें मीठे बेरों से भर गयी हैं
अब गलन कुछ कम है ,
माथे पर एक बोसे की तपिश चमकी
माथा भर गया
एक बोसा मानो लिहाफ बन गया
तस्ल्लीकुं नींद का असबाब बन गया
अब नींद गहराने लगी चिड़िया मुस्कुराने लगी ,
और रात फिर एक चिड़िया इस तरह जिंदा बच सकी |

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