खोटते खोटते चना
खोट लेती हूँ मन का एक हिस्सा भी
लहसुन मिर्चे वाला नमक मिला
एक गस्सा जीभ पर धरते ही गज़ब का चटकारा लगता है
गज़ब लगता है फुनगी का बिछोह मिटटी से
तर कर देता है कौले इश्क में टूटन के पहले सूखेपन को
उन क्षणों को भी
कि जब रात रात भर रजाई का एक कोना भिगोया
अपने ही चेहरे को परत दर परत नमक किया
हर कॉपी के पिछले पन्ने पर वो नाम लिख लिख मरी
बार बार हथेलियों पर बेंत की मार सही
अकेलेपन को ओढ़ खुद को ख़ाक किया
हर खुशी के उजाले को रात किया
वो सब तिर आया
मन के जल में तन के जंगल में ,
खोट लेती हूँ मन का एक हिस्सा भी
लहसुन मिर्चे वाला नमक मिला
एक गस्सा जीभ पर धरते ही गज़ब का चटकारा लगता है
गज़ब लगता है फुनगी का बिछोह मिटटी से
तर कर देता है कौले इश्क में टूटन के पहले सूखेपन को
उन क्षणों को भी
कि जब रात रात भर रजाई का एक कोना भिगोया
अपने ही चेहरे को परत दर परत नमक किया
हर कॉपी के पिछले पन्ने पर वो नाम लिख लिख मरी
बार बार हथेलियों पर बेंत की मार सही
अकेलेपन को ओढ़ खुद को ख़ाक किया
हर खुशी के उजाले को रात किया
वो सब तिर आया
मन के जल में तन के जंगल में ,
अन्दर से सांकल लगा जार जार रोई फिर बेआवाज़
दीवारें खुरचीं
ज़मीन लोट पोट की
अँधेरे का इंतज़ार किये बिना ही बत्ती बुझा
ताक पर सहेजी ढिबरी जलाई
उसकी गंध उसके धुएं को भरती रही छाती में
सुख का दुःख और दुःख का सुख करती रही छाती में
अज़ब घालमेल कि तब थोड़ी आग भभकी और बह गयी पोर पोर से ,
दीवारें खुरचीं
ज़मीन लोट पोट की
अँधेरे का इंतज़ार किये बिना ही बत्ती बुझा
ताक पर सहेजी ढिबरी जलाई
उसकी गंध उसके धुएं को भरती रही छाती में
सुख का दुःख और दुःख का सुख करती रही छाती में
अज़ब घालमेल कि तब थोड़ी आग भभकी और बह गयी पोर पोर से ,
सखियों संग अब जांता पीसने की बारी
खाली गेहूं नहीं उसकी बालियाँ भी पीसती हूँ
खुद को उससे एकमेक कर अलट पलट कर देती हूँ
अपने नहीं उसके होने को कोसती हूँ
अपना भुला उसका दुःख पोसती हूँ ,
खाली गेहूं नहीं उसकी बालियाँ भी पीसती हूँ
खुद को उससे एकमेक कर अलट पलट कर देती हूँ
अपने नहीं उसके होने को कोसती हूँ
अपना भुला उसका दुःख पोसती हूँ ,
कि ये दुःख ही है जो अल्हड इश्क का पहला जाया होता है ||
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