Tuesday, 16 January 2018

कवितायेँ

१-मैं शाम का कोई भी टुकड़ा 
तोडती हूँ जब कभी
न जाने कैसे रंग मिट्टी का चिपक जाता है
मेरी आत्मा से,
मैं शाम का कोई भी टुकड़ा
निगलती हूँ जब कभी
न जाने कैसे
आँसुओं का जाम भर जाता है
मेरी आत्मा में,
शाम ऐसी क्यों है
ऐसी क्यों नहीं
जैसे कि शेष प्रहर सब
निर्लिप्त हैं।


2-झूला कुरसी हिलती जब 
लगता कि बैठे हैं उसपर दादाजी
हाथ में पेपर नाक पर चश्मा घङी बंधी हाथों में,
थोङे थोड़े अंतराल पर जतलाते होना खुद का 
चाय पिला दो या कहते कि कहाँ हैं सब,
कभी घुमाते कभी मनाते
कभी झूठ ही होते गुस्सा फिर हँस देते
माँ से कहते डांटो मत
फिर बैठाकर गोदी में मुझको सच समझाते
मुशकिल बातों को किस्सों में ढालकर कहते
मुश्किल प्रश्नों को कर देते खेलों सा,
उनके संग पूरी दुनिया होती काबू में
उनके संग मैं आसमान की चिड़िया होती
थामे रखते वो मुट्ठी में डर मेरा
और मुस्कानों से मेरा उत्साह बढाते,
दादाजी गर होते मेरे
खूब मजे का बचपन होता
खूब मजे की शैतानी भी
माँ जब मुझको डांट न पाती
पापा फिर हिटलर न होते,
काश कि होते दादाजी
झूला कुरसी पर बैठे
हाथ में पेपर नाक पर चश्मा
घङी देखते हाथों में फिर कहते कि
क्या आई नहीं अभी तक
बङी देर कर दी।।।।।।।।
३-शहद घुली निंबौलियों सा नेह
सालों साल गटका
सिकङी लगी रही पट बाहर
भीतर भीत रही घुलती,
लीपी मिट्टी की सोंधी गंध का
ताजा टुकड़ा लिए
तोङी हुयी कांटी डुबोकर
छाती में उतार ली इक नजर
महुए में भीगी,
पल पल दर्द की पीठी बेली
सेंका कच्ची आग पर
और तोड़कर चिड़ियों को खिलाया,
सुना है उनकी दुआयें जल्दी असर करती हैं।।

४-रेत झरना 
शाम पाखी भीगती होकर मगन
ये गगन
जब देर तक पकता है औंधे मुंह
कच्ची धूप में,
हवा सर सर
रच रही है हीर
रांझे मचल मचल हो बावरे
सुनते मगन
जागे अगन भीतर प्राण मन,
हे सखे
तू है कहाँ पूछे है मेरा मन
बारंबार
अपरंपार तुझसे प्रेम
हिय बेचैन हो तुझको पुकारे
आ जरा मुझको ले जो थाम
और फिर सँवारे
देह भर
और आत्मा भर भी कभी।।

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