Tuesday 16 January 2018

कवितायेँ ग़ज़ल

१---कभी साथ चल मेरेमगरकभी खुद को तू आजाद कर 
ये मोहब्बतों की जो रस्म है इसे यूं ही खानाखराब कर,
तेरा साथ मुझको अजीज है तेरे साथ ही तो नसीब है
इन चक्करों में पङ मगर न खुद को तू बरबाद कर,
वो दुआ सरीखी शाम थी जब साथ तेरा सलाम था
इन दायरों से हो अलग अब खुद को तू आबाद कर,
ये फिरंगियों सी जिंदगी न जाने कब जाये गुजर
इसे ताब में मत ले कभी इसको फकत बेजार कर,
जो तू गुनगुना तो यूँ लगे कि है मुकम्मिल सी गजल
बस चंद लफ्जों में मत उलझ कि "राज" तू अशआर कर।।

2-रिवायत आम थी ये भी यहाँ 
परदानशीनों में,
किया करती थीं वो भी इश्क
पर चिलमन के सीनो में,
गुजरी जिंदगी उनकी यूँ जैसे
साथ दुश्मन का,
न जी पाईं न मर पाईं मुहब्बत की
जमीनों में।।
खुदा कैसा था इनका?????
३-अकेली रात के किस्से
टूटी बात के हिस्से
बङे गमगीन होते हैं
ये रोते हैं,
ये रोते हैं बिना आंसू
बिखरते हैं बिना आँसू
ये जब महरूम होते हैं,
ये जब महरूम होते हैं
बङे मासूम होते हैं
इनकी बात तीजी है,
इनकी बात तीजी है
सहेली कोई दूजी है
जो साझी हो नहीं पाई,
जो साझी हो नहीं पायी
वो पूरी हो नहीं पायी
अधूरी अब भी लगती है,
अधूरी अब भी लगती है
सिसकती है तङपती है
अकेली रात में अक्सर,
अकेली रात में अक्सर
हैं किस्से दूर तक गिरते
टूटी बात के हिस्से
बदल जाते हैं चेहरों में
जिन्हें हम चूम लेते हैं
लगा लेते हैं माथे से
दुआओं सा।।

४-रात चखी कल 
घोल के शक्कर यादों की
मीठी थी
फीकी भी कुछ -कुछ
नमक भी था कुछ जरा सा 
उसमें रोने का,
रात चखी कल
बटलोई में उबली थी जो
पहरों तक
कंडे का सोंधापन जिसमें
सीझ गया था
भीज गया था,
रात चखी कल
तारा -तारा बरसी थी जो
आँगन में
ताल-तलैया सब थे उसके
रंग रंगे
एक छूटकर अटक गया था
बांस के ऊपर दाने सा,
वैसे ही जैसे तुम
अटके हो अब तक मुझमे
तारा बनकर
शक्कर बनकर
बटलोई की उबल रही यादों में
सोंधापन बनकर,
टीस तो है पर रस भी है
कि जितना पी लूँ प्यास है बढती
जितना जी लूँ आस है बढ़ती
अटके को पूरा पाने की
फिर से जिंदा हो पाने की
साथी मेरे।।

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