Sunday 28 January 2018

मकर संक्रांति

मकर संक्रांति की पतंगें
अखबार और लेई से बनी पतंगें
सींक के परफेक्ट घुमाव पर चिपकी पतंगें
हवा का रुख भांप लम्बी सी पूँछ लिए लहराती पतंगें
लिख दिया करती थीं प्रेम का आख्यान आसमान में 
प्रेम जहां अंगडाइयां लेता तिल के लड्डू हथेलियों में सरकाता
गुड पट्टी पर नाखूनों की खरोंच से एक नाम लिखता
और जहाँ एक का लिखा नाम दुसरे के लिखे नाम को चूम लेता
वही होता कि जब बिना कुछ कहे बिना सुने वो हो जाता
और कहीं झुण्ड में बैठे ठहाका लगाकर बड़े कहते
खिचडी के चार यार
घी पापड़ दही अचार ,
इसी वक्त से शुरू होती थी डायरियों की खोज बीन
लिखी जातीं थीं अनगढ़ कच्ची कवितायें और नए नवेले प्रेम का पूरा खाका
विरहन आंसुओं और मीठे मीठे सिहरन वाले दर्द की पूरी तफसील
उन्हें आलमारी में छुपा छुपाकर रखने का सिलसिला
और प्रेम के आदर्शवाद का गहन गंभीर भाव ,
और फिर एक रोज कुछ यूँ होता
कि रफ़ी के गानों की जगह मुकेश के गाने बजने लगते
कभी ये भी सुनाई पड़ता
जब दिल ही टूट गया या फिर मेरी किस्मत में तू नहीं शायद
और तब डायरी में लिखे अलफ़ाज़ गमजदा व् परिपक्व होने लगते
कवितायेँ अब पक चुकी सी होतीं
व्यक्तित्व संजीदा होता
चेहरे भी कुछ गाम्भीर्य लिए से दिखते ,
पर ये कमबख्त मकर संक्रांति की पतंगे
एक बार फिर आसमान में लहरातीं
फिर तिल के लड्डू और गुड पट्टियाँ खाई जातीं
झुण्ड में बैठे बड़े भी ठहाका लगाते और कहते कि खिचडी के चार यार
घी पापड़ दही अचार
पर जो नहीं होता वो ये कि इस बार उन पतंगों पर कोई नाम नहीं होता
दिल में कच्चे इश्क का कोई तूफ़ान नहीं होता
नहीं होतीं गुड पट्टियों पर तराशे हुए नाखूनों की कोई खुरचन
न ही चेहरे पर प्रेम का एक किस्म का मादक रुआब ,
डायरियों में अब लिखे जा रहे होते अनगढ़ से कुछ विरह गीत
रखे होते फटी पतंग के कुछ पुराने छोटे छोटे टुकड़े
खुशबूदार इतर से गमकती एक चिट्ठी
किसी और के बगीचे से तोडी गयी नन्हें गुलाब की एक कटिंग
अतिउत्साह में खून से लिखा किसी का नाम
और उस पर बिखरी ढेरों आंसुओं की बूँदें ,
मकर संक्रांतियों के पतंग चेतावनी हैं
प्रेम के मीठेपन
और दर्द के खारेपन की ,
ओ प्पा |

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