Tuesday, 16 January 2018

कविता

१-मैं धूप के पन्नों पर इक नज्म लिखना चाहती हूँ
नज्म वो
कि जिसमें तपिश के तीव्र पीङादायी झोंकों के
सागर हों 
विकलताओं की वेदना का खारापन हो
और जो संवर सके शैवालों सीपियों व रंगीन पत्थरों के
टूटे आँसुओं से,
नज्म वो भी
जिसमें गूंजता हो जंगल का सौम्य हाहाकार
कि जिसमें तैरती हों ढेरों मछलियां बिलबिलाई सी
और जिसमें हवाओं पर जलकुंभियों का भीषण प्रतिबंध हो
और हो ढेरों कण उदासियों के छितराये हुए,
इस नज्म को ढालकर सुरों में इकतारे पर रच दूँगी
कस दूँगी
फिर सौंप दूँगी उस एक अदभुत नायिका को
जो जीवंत कर सके इसकी आत्मा नाट्य गृहों के मंच पर
प्रस्तुत कर सके इसे अदम्य यातना के सफल मनोहारी चित्र सा
कि जिसे उकेरा जा सके वहां की खाली सूनी उपेक्षित दीवारों पर
या फिर दर्शक दीर्घा में बैठे अनगिनत कसमसाते हृदयों पर
युगों -युगों तक के लिए।।


2-

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