Tuesday, 2 January 2018

शिकायत

आज कॉफ़ी बनाई है
वैसी ही जैसे कि तुम बनाया करती थीं
कप में थोडा पाउडर अंदाजी शक्कर, थोडा दूध मिला कर
फिर फेंटती थीं तुम उसे एक निश्चित लय में
फेंटती रहती थीं जब तक कि सब फोम न हो जाय 
सुंदर धुन गूंजती थी
चम्मच के कप से टकराने की
पता है तुम्हें कई दफे तो मै बस उसे सुनने को तुम्हारे पास चिपकी रहती
कित्ती तो बढ़िया खुशबू भी आती थी
हर सांस जैसे भर भर जाती थी उसके मोहक कसैलेपन से
फिर सबसे पहले पीना भी तो होता था
तुम जानती थीं न ये
इसीलिए तो बीच बीच में मुझे देखकर मुस्कुराती रहती थी
मेरा ध्यान नहीं होता था तुम्हारी तरफ
पर मुझे पता है ,
जब मेरे पसंदीदा मग में तीन चौथाई ये पेस्ट
और गरम दूध उबला हुआ इलायची वाला कुछ ऊपर से डालतीं तुम
किसी चित्रकार सी लगतीं
गरिमामय
सच मानो अद्भुत होता था वो दृश्य
मानो रच रहा हो कोई सुनहरा सुन्दर वेलवेटी संसार
लिखी जा रही हो कोई एक ऐसी धुन उस कप में
जो होंठों से लगते ही बस गुनगुना उठेगी
बूँद बूँद अपना स्वाद रचेगी
मंत्रमुग्ध सी हो बस तुम्हें देखा करती थी मै ,
लॉन के उस कोने वाले हिस्से में जहाँ धूप का एक टुकड़ा रुका रहता
मेरे लिये और तुम्हारे लिए
और जहाँ खिले होते
ढेरों गेंदे गुलाब दहेलिया और गुलदाऊदी के रंग बिरंगे फूल
अपनी अपनी खुशबू से लबरेज़
वहीँ हम दोनों बैठकर कॉफ़ी पीते थे साथ साथ
कभी कभी तुम कुछ गुनगुनाती भी थीं
अच्छा लगता था
मीठी सर्दियों में गुनगुनी धूप और तुम्हारी गहरे उतरती धीमी सी आवाज़
पर अक्सर ही हम बातें करते हुए पीते थे उसे
ख़त्म होते होते दुलार का एक नया आयाम गढ़ देती थीं तुम
ये तब तो नहीं पर अब महसूस होता है ,
अब नहीं पीती हूँ वैसी कॉफ़ी
अरसे से नहीं पी
मन हो तब पर भी नहीं
बेटे ने कहा मेरे लिए तो नहीं बनाया कभी
कोशिश की पर वैसी नहीं बनी जैसी बनाती थीं तुम
वैसी बन ही नहीं सकती
कोई तुम सा चित्रकार नहीं रहा न अब जो रच सके कप में काव्य
जो उतार दे स्वाद में चुम्बक ,
इतनी भी क्या जल्दी थी तुम्हें जाने की |

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