जल में डूबा विवश जीवन मृत्यु से संघर्षरत
पेट में जलती चिता और अश्रु केवल स्वेदसत
लिख रही है पटकथा प्रकृति फिर संहार की
हे मनुज देखो रची क्या खूब छवि इस हार की ,
पेट में जलती चिता और अश्रु केवल स्वेदसत
लिख रही है पटकथा प्रकृति फिर संहार की
हे मनुज देखो रची क्या खूब छवि इस हार की ,
लालसा ने फेर दी कूची सुनहरे स्वप्न पर
जाने कितने बह गए उम्मीद से उजले शहर
हल्दियों सी धूप भी स्याही का कागद हो गयी
रात्रि की निस्तब्धता मातम में परिणत हो गयी ,
जाने कितने बह गए उम्मीद से उजले शहर
हल्दियों सी धूप भी स्याही का कागद हो गयी
रात्रि की निस्तब्धता मातम में परिणत हो गयी ,
देवभूमि कहते कहते खूब दोहन कर लिया
हर कदम पर धरा की छाती में रुदन भर दिया
घाव तो गज्झिन किया किस पर किया पर प्रश्न ये
पीड़ और नैराश्य का ये भार किस पर प्रश्न ये ,
हर कदम पर धरा की छाती में रुदन भर दिया
घाव तो गज्झिन किया किस पर किया पर प्रश्न ये
पीड़ और नैराश्य का ये भार किस पर प्रश्न ये ,
कौन स्वीकारेगा अब इस कृत्य का सारा वहन
कौन देगा आहुति इस यज्ञ में अब हव्य बन
हो सजग अब तय करो कि मनुष्यता है सर्वधर्म
जीव प्रकृति और मानुष तीनो संग है तो जीवन ,
कौन देगा आहुति इस यज्ञ में अब हव्य बन
हो सजग अब तय करो कि मनुष्यता है सर्वधर्म
जीव प्रकृति और मानुष तीनो संग है तो जीवन ,
या रहो प्रस्तुत पुनः फिर एक नरसंहार को
या कि हो जाओ सजग धरती के तुम श्रृंगार को |
या कि हो जाओ सजग धरती के तुम श्रृंगार को |
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