Tuesday 21 January 2020

केरल आपदा

जल में डूबा विवश जीवन मृत्यु से संघर्षरत
पेट में जलती चिता और अश्रु केवल स्वेदसत
लिख रही है पटकथा प्रकृति फिर संहार की
हे मनुज देखो रची क्या खूब छवि इस हार की ,
लालसा ने फेर दी कूची सुनहरे स्वप्न पर
जाने कितने बह गए उम्मीद से उजले शहर
हल्दियों सी धूप भी स्याही का कागद हो गयी
रात्रि की निस्तब्धता मातम में परिणत हो गयी ,
देवभूमि कहते कहते खूब दोहन कर लिया
हर कदम पर धरा की छाती में रुदन भर दिया
घाव तो गज्झिन किया किस पर किया पर प्रश्न ये
पीड़ और नैराश्य का ये भार किस पर प्रश्न ये ,
कौन स्वीकारेगा अब इस कृत्य का सारा वहन
कौन देगा आहुति इस यज्ञ में अब हव्य बन
हो सजग अब तय करो कि मनुष्यता है सर्वधर्म
जीव प्रकृति और मानुष तीनो संग है तो जीवन ,
या रहो प्रस्तुत पुनः फिर एक नरसंहार को
या कि हो जाओ सजग धरती के तुम श्रृंगार को |

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